देर रात तलक सोता रहा वो शायर
उठा नही वो आज आधी रात को
अलमारी के कोने में पड़ी
डायरी इंतज़ार करती रही
सोच रही थी , अभी आयेगा
वो पागल शायर, कुछ ग़म
अपने मुझसे बांटेगा
कुछ मुस्कुराएगा
वो पागल शायर
गुजरती रही घडी
पहर पर पहर
पर शायर को ख्याल
जरा ना आया डायरी का
दो चार बार आवाज़ भी लगाया
पर कोई जवाब नही आया
डायरी बस इंतज़ार करती रही
मिनट घंटे पहर और सुबह हो गयी
कुछ शोर सुन
झपकती आँखों को खोला
अलमारी के छेद से बाहर झाँका
कुछ लोग गोल घेरे में बैठे थे
सफ़ेद लिबाज़ पहने, वही बिच में
सफ़ेद लिबाज़ ओढ़े सोया था
वो पागल शायर
-कबीरा
१३-०१-२०१७
००:३५
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