कल आधी रात को
चाँद के छाव में बैठकर
कांपते हाथो से
लिखा था,
एक मुरझाया हुआ सा नज़्म
अरे हा, कल शाम को ही
फ़ोन पे मुद्दतो बाद
तुम्हारी आवाज़ सुनी थी
लगा था जैसे जुलाई के महीने में
बर्फ की बारिश हुई हो
या दिसंबर में पूरा दिन
धुप खिली हो
तुम्हारी आवाज़ से लगा था
तुम सुबक रही हो
बहुत पूछा पर तुमने
कुछ भी बताने से इंकार कर दिया
एक बार फिर मुझे एहसास हुआ
हा, सच में अब मै बेगाना हो गया हु,
कल रात
चाँद के छाव में
लिखा था मैंने
एक मुरझाया हुआ नज़्म
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